18 जून 1858 को शहीद हुई थीं लक्ष्मीबाई

सत्यम् लाइव, 18 जून, 2021, दिल्ली।। लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथीबाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। ये वो नाम है जिसका नाम सुनते ही आम भारतीय उत्साह, साहस, पुरुषार्थ और देशप्रेम की भावना से भर जाता है। कल्पना कीजिये जिस व्यक्ति के मृत्यु के लगभग डेढ़ सौ साल बाद भी लोग उनके नाम मात्र सुनने से इतने ओज से भर जाते हैं तो वो व्यक्तित्व अपने समकालीन लोगों क्या प्रभाव छोड़ता होगा। लक्ष्मीबाई के यही व्यक्तित्व के कारण झांसी जैसे छोटे और कम संसाधन वाले राज्य ने ब्रिटिश राज को नाकों चने चबवा दिए। यह लक्ष्मीबाई का करिश्माई व्यक्तित्व था कि पेशेवर सेना के अभाव में आम लोग में साहस और युद्ध कौशल भरकर उसे आत्मसम्मान और मातृभूमि के रक्षा के लिए योद्धा की भांति खड़ा कर दिया और सिद्ध कर दिया कि युद्ध केवल संसाधन और बड़ी सेना से नही लड़ी जाती है बल्कि कुशल नेतृत्व, साहस और मातृभूमि के प्रति समर्पण भाव से लड़ी जाती है।

लक्ष्मीबाई ने आम भारतीयों की कई मिथकों और पूर्वाग्रहों को तोड़ दिया। योद्धा को लेकर लोगों के मन में जो एक पुरुष की छवि होती थी उसे लक्ष्मीबाई ने तोड़ दिया और लोगों के मन में यह सकारात्मकता भर दिया कि स्त्री भी सार्वजनिक जीवन में कमाल कर सकती है। पहले भी और आज भी समाज सुधार की प्रक्रिया में लक्ष्मीबाई के नाम का मिशाल दिया जाता है।

लक्ष्मीबाई निर्विवाद रूप से महान योद्धा थी लेकिन उनके दृष्टिकोण की व्यापकता भी उतनी ही महान थी। उनमें केवल झांसी को लेकर संकीर्णता नही थी। उनकी निष्ठा मातृभूमि के प्रति थी और भारतभूमि उनकी मातृभूमि थी जिसे अंग्रेजों द्वारा गुलाम होने के कारण उनका आत्मसम्मान को ठेस पहुँचता था।यही कारण है कि उन्होंने देशी रियासतों के साथ समन्वय करने का प्रयास किया और जब झांसी अंग्रेजों के कब्जे में आ गया था और यह लगभग सिद्ध हो गया था कि झांसी को ब्रिटिश नियंत्रण से निकालना सम्भव नही है तब भी लक्ष्मीबाई नेपाल की तराई से अंग्रेजों के विरुद्ध अभियान करती रही। यब मातृभूमि के प्रति प्रेम ही था जो अंतिम सांस तक उन्होंने संघर्ष किया। राजसत्ता का मोह इतना प्रेरक नही होता।

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1858 के जनवरी माह में अंग्रेजी सेना झाँसी की ओर बढ़ी और मार्च के महीने में झाँसी को घेर लिया। दो सप्ताह की लड़ाई के बाद अंग्रेजों की सेना ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया परन्तु रानी अंग्रेज़ों से बच निकली, रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँचकर तात्या टोपे से मिली। तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। बाजीराव प्रथम के वंशज अली बहादुर द्वितीय ने भी रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया और रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें राखी भेजी थी इसलिए वह भी इस युद्ध में उनके साथ शामिल हुए। 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में अंग्रेजों की सेना से लड़ते-लड़ते शहीद हो गई। अंग्रेज अधिकारी ने जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई चालाकी और दृढ़ता साथ ही सबसे अधिक ख़तरनाक भी थीं।

अंकित पराशर

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