सत्यम् लाइव, 21 जुलाई 2021, दिल्ली।। आयुर्वेद में तीन तरह के दोष मानव में बताये गये हैं ये तीनों दोष यदि कुपित हो जाये तभी हम सब बीमार पड़ते हैं और यदि इन तीनों दोषों को ऋतु के अनुसार से कुपित होने से बचा लें तो आजीवन बीमार नहीं पड़ सकते हैं। किसी भी व्यक्ति के शरीर में इन तीनों दोषों में से यदि एक भी दोष कुपित हो जाये तो वही दोष प्रधनता वाला रोग होते है।
ये दोष हैं – 1. कफ 2. पित्त 3. वात।
कफ:- जन्म से लेकर 14 वर्ष तक बच्चा कफ के असर में रहता है व कफ का स्थान शरीर में सिर से लेकर छाती तक होता है अतः बच्चा जब भी बीमार पड़ता है तब उसे पहले जुकाम होता है, खाँसी आती है। दिनचर्या के अनुसार कफ का समय प्रातः 6 बजे से 10 बजे तक तथा सायं 6 बजे से 10 बजे तक का माना गया है। ऋतुचर्या के अनुसार हेमन्त ऋतु अर्थात् पौष और माघ माह में कफ संचित होने का समय है तथा बसन्त ऋतु में अर्थात् फाल्गुन और चैत्र में असंचित कफ अपना असर दिखाता है।
पित्त:- 14 वर्ष से लेकर 60 वर्ष तक व्यक्ति पित्त प्रधान रोगों से गुजरत है इसका अर्थ है कि इस आयु वर्ग में व्यक्ति को पेट के रोग अधिक सताते हैं। पित्त का स्थान मानव शरीर में छाती से नाभी तक होता है। दिनचर्या के अनुसार पित्त का समय प्रातः 10.00 बजे से दोपहर 2 बजे तक का होता है तथा रात्रि में 10.00 बजे से 2.00 बजे तक का होता है। ऋतुचर्या के अनुसार शिशिर ऋतु अर्थात् भाद्रपद व आश्विन माह में पित्त संचित होने का समय कहलाता है तथा शरद ऋतु में कार्तिक तथा मार्गशीर्ष माह में असंचित पित्त अपना असर दिखाता है। इस माह पित्त की बीमारियों से बचना ही श्रेष्ठ कर्म है।
वात:- 60 वर्ष के पश्चात् जब तक मनुष्य जीवित रहता है वो वात के असर वाले रोगों से ग्रसित पहले होता है और वात के भारत वर्ष में लगभग 80 प्रतिशत रोग हैं। इस आयु वर्ग में हड्डी कमजोर होने के कारण सम्पूर्ण शरीर के दर्द में गुजरना पड़ता है। यदि इस आयु वर्ग को अपने शरीर में वात के होने वाले रोग को रूका जाये तो व्यक्ति अवश्य ही इच्छा मृत्यु को धारण कर सकता है। मानव जीवन में वात का स्थान नाभी से लेकर तलवे तक होता है। वैसे तो वात का अर्थ वायु से है जो सम्पूर्ण शरीर में निवास करती है। शरीर में दर्द या हृदय घात, मिर्गी, पैरालाइज हो जाना सारे ही वात के रोग हैं।
सुनील शुक्ल
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