सत्यम् लाइव, 8 जनवरी 2021, दिल्ली : अपनी कमजोरी के लिए दूसरे को आरोपित करने या दोष लगाने के बजाय अपने आप को समझ कर अपनी कमजोरी को हथियार बना लेना चाहिए। जब हम अपने आपको समझ कर अपनी क्षमता को प्रमाणित कर देते हैं, तब दूसरे लोग भी हमें जानकर प्रेरणा ग्रहण करने लगते हैं। ऐसे कुछ दिव्यांग भाई-बहनों का वर्णन किया जा रहा है, जो विश्व के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। विश्व का पहला दिव्यांग 12 वर्ष का बच्चा, जिस की कथा महाभारत में वर्णित है, जिसने अपने तत्वज्ञान से जनक जैसे परम ज्ञानी को भी अपना शिष्य बना लिया। उनका नाम जगत प्रसिद्ध अष्टावक्र है, उनके द्वारा रचित ग्रंथ अष्टावक्र गीता है। अष्टावक्र के माता पिता का नाम सुजाता और कहोड ऋषि था। अष्टावक्र ने महाराज जनक की सभा में शास्त्रार्थ किया और सभी विद्वानों को परास्त कर दिया। अष्टावक्र के तत्व ज्ञान, शास्त्र पांडित्य, बुद्धि कौशल, संयम, विनम्रता, सत्यता और निर्भीकता को समझकर महाराज जनक बहुत प्रभावित हुए। जनक ने प्रसन्नता पूर्वक कहा मैं आपको कुछ देना चाहता हूं। अष्टावक्र ने त्याग और ज्ञान का परिचय देते हुए कहा आप अपनी वस्तु मुझे दो। राजा ने कहा राज्य अर्पण करता हूं। अष्टावक्र ने कहा राज्य वंश परंपरा से प्राप्त हुआ है। इस प्रकार बहुत प्रश्नों के बाद राजा ने कहा मन अर्पण करता हूं। तब अष्टावक्र ने कहा मन आपका है। मैं इसे स्वीकार करता हूं। इस प्रकार अष्टावक्र ने जनक को आत्म ज्ञान का बोध कराया। जनक ने अष्टावक्र को अपना गुरु मान लिया। दिव्यांग व्यक्ति अपनी क्षमता को पहचान कर समाज की चुनौती को स्वीकार करके कार्य करें तो दिव्यांगजन गौरव को भी प्राप्त कर सकते हैं जैसे अष्टावक्र, बृज भाषा के कवि सूरदास। सूरदास की मृत्यु के समय वल्लभाचार्य का कथन था कि पुष्टिमार्ग का जहाज डूब रहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरदास का वात्सल्य का सम्राट और हिंदी साहित्य का सूर्य कहा है। “सूर सूर तुलसी ससी” हिंदी साहित्य में भ्रमरगीत की परंपरा सूरदास से हुई है हुई है।
अंग्रेजी भाषा के कवि मिल्टन, जो 12 वर्ष की अवस्था में दृष्टिहीन हो गए थे, उनका अंग्रेजी भाषा के कवियों में मूर्धन्य स्थान है। मुख बिहारी उपाध्याय जो अल्प दृष्टि वाले थे, वे बहुत सुंदर चित्र बनाते थे। चित्रकला में उन्हें महारत हासिल थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर पैरों से लिखते थे। पहले दिव्यांगों की सात श्रेणी मानी जाती थी, किंतु वर्तमान में 21 श्रेणी मानी जाती हैं। इस आधार पर महाकवि कालिदास के द्वारा पेड़ की टहनी को काटने की घटना दिव्यांगों की श्रेणी में आती है। महाकवि कालिदास के विषय में बड़े अदब के साथ कहना चाहता हूं कि वह मानसिक रूप से दिव्यांग थे। वर्ष 1999 के एक्ट के अनुसार कालिदास जैसे स्थिति वाले लोगों को विकलांगता की सीमा में लाया गया। वर्ष 2016 में और बहुत सी श्रेणी इसमें शामिल की गई। कालिदास जी को इतना भी ज्ञान न था कि वह जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे। इससे यह उनकी मानसिक दिव्यांग का सिद्ध होती है और हमें स्वीकार भी करनी चाहिए। आगे चलकर वही संस्कृत भाषा के मूर्धन्य एवं विश्व विख्यात कवि हुए। कालिदास को कविकुलगुरु कहते हैं। वे संस्कृत भाषा एवं भारत के गौरव हैं।
रामचरितमानस में संपाती जिसके पंख जलने से दिव्यांग हो गया था। उसने वानर समूह की निराशा दूर करते हुए उनमें साहस का संचार किया। उसका कथन है कि तुम ईश्वर के दूत हो अपनी कायरता (डर) को त्याग कर कुछ उपाय करो "तासु दूत तुम तज कदरा,ई राम हृदय धरि करऊं उपाई।" इससे मानव में नई शक्ति का संचार हो गया। संपाती के कहने से वानर कहने लगे " पर जाएं कछु संशय राखा।"
अब एक ऐसे दिव्यांग महापुरुष की चर्चा करना चाहते हैं जिसकी दिव्यांग होते हुए भी जिसे दिव्य जगत में प्रवेश करने में सामर्थ्य है। महर्षि अरविंद का कथन है-मन सूक्ष्मतर यंत्र है और अंतःकरण में मन से भी अधिक शक्तिशाली शक्तियां आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं। नाभा गोस्वामी ने इन शक्तियों में प्रवेश करके भक्तमाल की रचना की। भक्तमाल में धर्म की स्थापना करके सभी संप्रदायों की एकता का दर्शन कराया गया है। भक्तमाल हिंदी भाषा के संवर्धन के लिए सर्वोत्तम ग्रंथ है। नाभा जी का संक्षिप्त जीवन चरित्र इस प्रकार है- राजस्थान में भयंकर अकाल का समय था। किसी के भी घर में अन्न का एक दाना नहीं था। परिवार की दीनता बच्चे का अंधापन और भविष्य को लेकर मां का हृदय आशंकाओं से कांप उठा। एक दिन उसने ब्रह्म मुहूर्त में अपना आशीर्वाद देकर एक चौराहे पर बच्चे को भगवान को समर्पित कर दिया। देव योग से कृष्ण पयहारी के शिष्य कील दास और अग्रदास रोते हुए बच्चे को गलता आश्रम में ले गए। वहां संतों की सेवा, सुमिरन और जूठन तथा गुरु अग्रदास की भक्ति निष्ठा के कारण यही अंधा बालक नाभा गोस्वामी से प्रसिद्ध हुआ।
आप लुई ब्रेल के विषय में कुछ जान लेना चाहिए। लुई ब्रेल का जन्म 1809 में फ्रांस के छोटे से गांव में हुआ था। उनके पिता घोड़ों की काठी और जीन बनाते थे। बालक लुई को पिता के काठी और जीन बनाने के औजारों से खेलना बहुत अच्छा लगता था। 5 वर्ष की आयु में उनकी एक आंख में नुकीली वस्तु घुसने से रोशनी चली गई। परिस्थिति या पिता की लापरवाही के कारण बच्चे का कोई इलाज ना हो सका। 8 वर्ष की आयु आते-आते बच्चे की दूसरी आंख की भी रोशनी चली गई। बालक पूर्ण रूप से दृष्टिहीन हो गया। 12 वर्ष की आयु में वैलेंटाइन पादरी की सहायता से एक अंध विद्यालय में उन्हें प्रवेश मिल गया। बालक लुई ने परिस्थितियों से हार नहीं मानी। वह सोचता रहता अंधों के लिए ऐसी कोई लिपि नहीं बन सकती जिससे वह पढ़ सकें। किसी ने ठीक ही कहा है कि "जहां चाह वहां राह"। मानस में श्रीराम का कथन है कि "परहित बस जिनके मन माही, तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहीं।" परिणाम स्वरुप उनकी भेंट शाही सेना के कैप्टन चार्ल्स बरार से हो गई। चार्ल्स 12 संकेतों वाली लिपि का प्रयोग करते थे, जो अंधेरे में भी पढ़ी जाती थी। सैनिक रात्रि के समय संदेश प्राप्त करने के लिए उस लिपि का प्रयोग करते थे। लुई ने वहीं से प्रेरणा ग्रहण करके 6 बिंदु वाली उभरी हुई लिपि का प्रयोग किया, जिससे दृष्टिहीन व्यक्तियों के जीवन में क्रांति आ गई। वर्ष 1819 में ब्रेल लिपि का आविष्कार हुआ किंतु शुरू में इस पर कैप्टन चार्ल्स बरार का साया छाया रहा। लेकिन अंत में विजय सत्य की हुई। वर्ष 2009 में लुई ब्रेल पार्क डाक टिकट जारी हुआ। इस लिपि के प्रभाव से दृष्टिहीन लोग नई-नई ऊंचाइयों को छू रहे हैं। दृष्टिबाधित लुई ब्रेल को अपना ईश्वर मानते हैं। प्रत्येक वर्ष 4 जनवरी को ब्रेल दिवस मनाया जाता है।
हजारों व्यक्तियों के साथ रोशनी के रास्ते पर चलने की अपेक्षा अकेले अंधकार के रास्ते पर चलना असंभव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है। यह बात हेलन केलर के विषय में कही गई है। वर्ष 1880 में अमेरिका के छोटे से गांव में हेलन का जन्म हुआ था। जब वह मात्र 19 महीने की थी तभी उनकी आंखों की रोशनी, सुनने की शक्ति तथा आवाज चली गई। माता-पिता हेलन के जीवन को ज्ञान से आलोकित करना चाहते थे। इसी कोशिश में 6 वर्ष की अवस्था में एक शिक्षिका सिलीवन मिल गई जो स्वयं भी विकलांग थी। दुखी व्यक्ति ही दूसरे के दुख को समझता है। सिलीवन तथा हेलन के माता-पिता ने उनके दुख को गहराई से समझा।
सिलीवन ने सर्वप्रथम हेलन के हाथ पर डॉल लिखा और एक गुड़िया हाथ में थमा दी। वाटर हाथ पर लिखा और उसका हाथ पानी में रख दिया। अपनी स्पर्श शक्ति से हेलन ने अपने जीवन में एक क्रांति ला दी। हेलन को लोग संसार का आठवां अजूबा कहते हैं। ज्ञान प्राप्ति के लिए श्रवण और दृष्टि विशेष महत्व रखते हैं, किंतु हेलन ने स्पर्श शक्ति त्वचा इंद्रि से ज्ञान में महारत हासिल की। 1964 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन स्नेह सर्वश्रेष्ठ सम्मान से उन्हें नवाजा। इसके बाद उन्हें अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। यहां मानस कार का कथन समीचीन है- "तात कर्म ते निज गति पाई।"
महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंन्स की कहानी बहुत रोचक पूर्ण है। गैलीलियो की मृत्यु के 300 वर्ष बाद ठीक उसी दिन दिनांक 8 जनवरी 1942 को हॉकिंस जन्म हुआ। दिनांक 14 मार्च 2018 यानी आइंस्टीन के जन्मदिन पर उनकी मृत्यु हुई। 22 वर्ष की आयु में उनको एक ऐसी बीमारी हो गई जिससे उनके हाथ पैर नहीं चलते थे। 1966 में उनके गले की आवाज भी चली गई। उस समय डॉक्टरों ने कहा था यह अधिक दिन जीवित नहीं रह पाएंगे। डॉक्टरों का कथन उनके विषय में असत्य साबित हुआ। उन्होंने लंबा जीवन जिया। उन्होंने बहुत भविष्यवाणी कि जैसे मनुष्य अधिक ऊर्जा का प्रयोग करेगा जिससे पृथ्वी का तापमान बढ़ जाएगा। वर्ष 1988 में उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें उन्होंने कहा विज्ञान ईश्वर का विरोधी नहीं है अर्थात उन्होंने ईश्वर को परोक्ष रूप से स्वीकार किया। भारतीय चिंतन का समर्थन करते हुए कहा कि ब्रह्मांड की रचना 0 भी हो सकती है। उन्होंने ब्लैक होल की व्याख्या अपने हिसाब से की। विज्ञानिक उन्हें विज्ञान विद कहते हैं। वे दिव्यांगों के और वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
भारतीय महिला अरुणिमा सिन्हा की जीवन चर्या भी बड़ी रोमांचक है। अरुणिमा सिन्हा का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर अंबेडकर नगर में हुआ था। वह वॉलीबॉल प्लेयर बनना चाहती थीं। 4 अप्रैल 1994 को वह पद्मावत एक्सप्रेस से लखनऊ से दिल्ली आ रही थीं। रात के समय कुछ लुटेरों ने उनके सोने की चेन छीनने की कोशिश की। जब वह चैन छीनने में कामयाब नहीं हुए तो अरुणिमा सिन्हा को उठाकर बरेली के पास ट्रेन से बाहर फेंक दिया, जिस कारण उनका बायां पैर कट गया। पूरी रात वह ट्रैक पर पड़ी रहीं। साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि लगभग 40 से 50 ट्रेन उनके ऊपर से निकलीं जिनमें से उनके पूरे शरीर पर लोगों के मल मूत्र गिरते हुए जाते। सुबह जब लोगों ने देखा तो उन्हें नई दिल्ली के एम्स हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। लगभग 4 माह तक उनका इलाज चला और उनके नकली पर लगा दिया गया। डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने की सलाह दी। एम्स में बचेंद्री पाल अरुणिमा सिन्हा से मिलने आईं और उसके बाद अरुणिमा सिन्हा ने एवरेस्ट फतह किया और किलिमंजारो की पहाड़ी पर भी भारतीय तिरंगा फहराया। अब उनका लक्ष्य अंटार्कटिका है। मानस का कथन समीचीन है- "जो इच्छा करहुं मन माही। हरी प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।"
तुलसी पीठ (चित्रकूट) के समाचार रामभद्राचार्य ने दिव्यांग विश्वविद्यालय की स्थापना करके समाज कल्याण का महान कार्य करते हुए दिव्यांगों को नई शक्ति और ऊर्जा प्रदान कर रहे हैं। राजस्थान के रहने वाले देवेंद्र झाझडिया, जो एक हाथ से दिव्यांग होते हुए भी 2016 पैरा ओलंपिक (रियो डी जेनेरियो) खेलों में भाला फेंक प्रतिस्पर्धा में विश्व कीर्तिमान स्थापित करते हुए स्वर्ण पदक जीतकर भारत का मान बढ़ाया है।
वर्ष 2018 में भारत के दृष्टिहीन खिलाड़ियों ने क्रिकेट विश्व कप में पाकिस्तान को हराया। हमारे शास्त्रों में ठीक ही कहा गया है। भगवत कृपा से दिव्यांग भी महान बन सकते हैं।
मूकं करोति वाचालं पंगु लग्यतें गिरिम्। यत कृपा तमहं वंदे परमानंद माधवम।
मानस की भूमिका में गोस्वामी जी इसी बात को बड़े विश्वास से कहते हैं- “मूक होइ बाचाल पंगु चढ़ई गिरिबर गहन। जासु कृपा हो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।”
जिनके जुबान नहीं होती दुआ और इबादत भी उनकी कबूल होती है क्योंकि दुआ और इबादत दिल से आती है जुबान से नहीं। किस्मत उनकी भी होती है जिनके हाथ नहीं होते। किसी शायर ने ठीक कहा है "हिम्मत ए मर्दा मदद ए खुदा" जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं ईश्वर उनकी मदद करता है। जैसे उद्योगों और तकनीकों का विकास निरंतर बढ़ता जा रहा है उसी अनुपात में दिव्यांगों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है। सभी दिव्यांग भाई बहनों से मेरा अनुरोध है, विनम्र प्रार्थना है ऐसी दिव्यांग विभूतियों के जीवन से प्रेरणा ग्रहण करके समाज निर्माण में अपना योगदान दें।
संपादक – हरिओम शास्त्री (मानस क्रांति)
मोबाइल नंबर-9871406305
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