पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा, मगर ये तो कोई न जाने उसकी मंजिल है कहां…

नई दिल्ली: कुछ लोग छुपे रहते हैं अपनी तनहा ज़िन्दगियों में अपनी अपनी छोटी बड़ी लड़ाइयाँ लड़ते हुए वोह ढिंढोरा नहीं पीटते,पत्रकार नहीं जानते उनके घर का पता लेकिन वो हमारे ही पड़ोस में हमारे ही मोहल्ले में रहते है।हम खुद उनको नहीं जानते क्यूंकि अपने आप की खोयी इस दुनिया में हम दूसरा बनके नहीं सोच पाते.लेकिन इन लोगों के साथ एक बड़ी समस्या है की ये लोग फिर भी सपने देखना नहीं छोड़ते।शायद ,मेरा सफर आज उस हीरो को मिलके खत्म हुआ,मै किसी अभिनेता से मिलके नहीं आया हूँ.वो हीरो है मेरा शायद आप उसके पास से गुज़र भी जायेंगे तो शायद आप पलट के भी ना देखें ..ऐसे हज़ारो हज़ारो लोग जो भीड़ में गुमनाम घूमते हैं उनमे से न जाने कितने हीरो है हमारे.कहाँ से शुरू करूँ वो सफर शायद खबरों में रहने वाले अलीगढ से या उस घर से जहाँ उस नन्हे से बच्चे ने बचपन में अपने माँ बाप को खो दिए या जहाँ उस बच्चे ने अपना सब कुछ खो दिया सिर्फ अपना सफर जारी रखने के लिए कौन था ये लड़का कौनसी बड़ी बात थी हजारों सपने टूटते तो है रोज़ या मै शुरू करू यह कहानी सोनीपत के आंबेडकर पार्क से जहाँ एक लड़का थका हुआ बैठा था.400 km दूर अपने घर से भाग के आया हुआ लड़का जिसकी जेब में सिर्फ एक बड़ा नोट था, या उस सुबह से, उस पार्क से शुरू करूँ यह कहानी जहाँ ये लड़का गीतकार बनने का अभ्यास कर रहा था क्यूंकि वह उस बड़े शहर में अपने लिए जगह बना रहा है जहाँ वो अपने लिए किसी जगह की कल्पना नहीं कर सकता था.ज़िन्दगी को बदलने वाले लम्हे कब किस भेस में आ जाये पता नहीं चलता.पुरानी कहावत है कि जो अपनी रूचि का काम करता है सही मायने में वह अपने काम को करता नहीं बल्कि उसे जीता है.ऐसा न होने पर व्यक्ति अपने काम को ढोता है.समाज ने उसे उम्मीदों को पालना सिखाया एक सपना था जो बबलू को जागने नहीं देता था सोने भी नहीं देता था उससे गीतकार बनना था.लेकिन जब तक इम्तेहान का ग्रहण ना लगे सूरज का चमकना कारगर नहीं लगता.माँ को खोने के बाद अब उसका असली खून उसका परिवार इस छोटे से लड़के खिलाफ हो गया.उनको बबलू का सपना अब मज़ाक लगता था.उसे पता नहीं था की घर छोड़के भागने के बाद वो कहाँ जायेगा.उसको पता नहीं था की वो कहाँ जायेगा.पहले वो अलीगढ से बनारस गया फिर सोनीपत भाग आया.लोगों ने कहां की किसी लड़की के साथ भाग गया होगा.कमाल के होते हैं ये लोग भी ,आप हम रोज़ उनके सामने एक दीवार चुन देते हैं और वो हर बार उनको फांद के भाग जातें हैं.भागना तो आसान था लेकिन अपने सपने को जीना शायद मुश्किल था.न रहने का ठिकाना ना मदद की कोई आस।आज भी जी रहा है बबलू अपने सपने के साथ, बीच मे कई लोगों ने हाथ भी थामा लेकिन शायद इस समाज में अभी उसे कुछ और दीवार फांदने है,शायद फिर भागना है।

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प्रशांत राय

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