टकराव का खेल

भारत में क्रिकेट के क्षेत्र में सुधार के मसले पर गठित लोढ़ा समिति और बीसीसीआइ यानी भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के बीच जिस तरह का टकराव खड़ा हुआ है, उसका हल चाहे जो निकले, लेकिन इससे इतना साफ है कि संभवत: पारदर्शिता के अभाव में पैसे को लेकर कई तरह की उलझनें बनी हुई हैं। चूंकि खेल से लेकर क्रिकेट संघों तक के मामले में व्यापक गड़बड़ियों की शिकायतें आती रही हैं, इसलिए पैसे की कमी और उससे उपजे विवाद भी अस्वाभाविक नहीं हैं। अगर किन्हीं हालात में लोढ़ा समिति ने बैंकों को पत्र लिख कर राज्य संघों को बड़ी धनराशि का भुगतान करने रोक लगाने की घोषणा की है, तो यह समूचे मामले के एक गंभीर स्थिति में पहुंच जाने का ही संकेत है। गौरतलब है कि धनराशि के वितरण के संबंध में लोढ़ा समिति और सुप्रीम कोर्ट ने भी तीस सितंबर तक एक नीति तैयार करने का निर्देश दिया था।

बीसीसीआइ ने न सिर्फ इस समय-सीमा का खयाल रखना जरूरी नहीं समझा, बल्कि समिति के मुताबिक अपनी सुविधा से उसका उल्लंघन भी किया। बीसीसीआइ के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर ने पैसों के अभाव में भारत और न्यूजीलैंड के बीच शृंखला के जारी रहने को लेकर अनिश्चितता जाहिर कर दी। लोढ़ा समिति का कहना है कि उसने बीसीसीआइ के खातों पर रोक नहीं लगाई है, बल्कि उसे निर्देश दिए हैं कि वह राज्य संघों को धनराशि का भुगतान न करे; दैनिक कार्य, मैच चलते रहने चाहिए। अनुराग ठाकुर का यह कहना सही हो सकता है कि पैसे के बिना खेल को नहीं चलाया जा सकता, लेकिन सवाल है कि क्या बीसीसीआइ को मनमाने तरीके से पैसे खर्च करने की छूट है!

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दरअसल, यह मामला लोढ़ा समिति की सिफारिशों और उन पर अमल के सवाल पर उपजे विवाद के साथ शुरू हुआ। अपनी सिफारिशों में समिति ने बीसीसीआइ में पारदर्शिता लाने के मकसद से उसे सूचनाधिकार कानून के दायरे में लाने से लेकर बोर्ड में पदाधिकारियों की योग्यता से संबंधित मानदंड बनाने और खिलाड़ियों का अपना एसोसिएशन बनाने जैसे कई सुझाव दिए थे। सुप्रीम कोर्ट ने तकरीबन सभी सिफारिशों को स्वीकार कर लिया था। मगर उस पर बीसीआइ का रुख सकारात्मक नहीं रहा। यहां तक कहा गया कि अगर इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया जाए तो भारतीय क्रिकेट बहुत पीछे चला जाएगा। यह विचित्र है कि जिन सिफारिशों को देश के क्रिकेट परिदृश्य में फैले भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिहाज से ठोस सुझाव माना गया, उन्हें लेकर ऐसी प्रतिक्रियाएं भी सामने आर्इं। जबकि यह जगजाहिर है कि जब से भारतीय क्रिकेट में धन का बोलबाला बढ़ा है, यह खेल कम और बाजार के तमाशे में ज्यादा तब्दील होता गया है, जो पूरी तरह पैसे के अकूत प्रवाह पर निर्भर है। इसी के मद्देनजर क्रिकेट से जुड़े संगठनों और राज्य संघों पर कब्जा जमाए बैठे राजनीतिक और रसूख वाले लोग इसे छोेड़ना नहीं चाहते। छिपी बात नहीं है कि अलग-अलग राज्य क्रिकेट संघों से लेकर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड तक में जो लोग काबिज रहे, वे इस खेल को बढ़ावा देने के बजाय किस तरह निजी स्वार्थ साधने में लगे रहे। हालांकि समय-समय पर ऐसे सवाल भी उठते रहे कि अगर क्रिकेट संघों पर कब्जेदारी की होड़ इसी तरह चलती रही तो इस खेल की शक्ल क्या बचेगी! लेकिन तमाम सवालों और सुझावों के बावजूद तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं आ सका है।

योगेश कश्यप
संपादक-सत्यम् लाइव

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